18.12.2009

कई साल बीत गये

कई साल बीत गये

कई साल बीत गये खेतों में हरियाली देखे
कई बरस बीत गये खेतों की पगडंडी देखे
बहुत याद आती जमीन पर उगे घासों की
भूलता नहीं खलिहानों को जहां खड़ा होना सीखे
कई साल बीत गये खेतों में हरियाली देखे.


अब मालूम चला शहरों में तय होती रोटी की कीमत
पहले जमीन से जुड़ा था नहीं थी किसी से रहमत
रूखी सूखी खाकर भी मयस्सर थी अदावत
शहर में जब से आया हूं दरख्तों की भी खिदमत नहीं
सिर्फ एक रोटी के लिए रात-रात भर होती है मशक्कत
अब तो मायूस सा दिखता हूं------------
यहां तो सबकुछ दौड़ सा दिखे
कई साल बीत गये खेतों में हरियाली देखे.

आजकल दिल्ली की शान-ए-फिजा में जीता हूं
हर दिन जम्हूरियत का नंगा नाच देखता हूं
अपनी जमीन से हर पल बेदखल सा लगता हूं
जमीनी सच्चाई बता दूं----------
पेट भर कर भी रात रात भर नहीं सोता हूं
सकून तो उसी नंगी जमीन पर थी
यहां तो सबकुछ उजड़ा हुआ चमन दिखे
कई साल बीत गये खेतों में हरियाली देखे.

घर बार छोड़कर निकला था शहर में नाम कमाने
हाथ में कुछ किताबें थीं और थीं जमीन की उम्मीदें
एक बक्सा पिछड़ा लिबास था
कुछ कलम-किताब और दवात थे
आज बाबू से दिखता हूं
नाम खातिर मारा मारा फिरता हूं
यहां तो सब कुछ बेजान सा दिखता है
आ लौट चले अपनी जमीन पर----
तेरे बिन जो बंजर सा दिखे
कई साल बीत गये खेतों में हरियाली देखे.
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